यह बात है गदर की। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। हर तरफ़ खौफ़ और कत्लेआम का मंज़र था। एक शख़्स अपनी पत्नी को अपने मुल्क वापस लाने की खातिर ना जाने कितने खतरे मोल लिए सरहद पार पहुंच गया था। ना के पहुंचा, ढेरो लोगों को चित्त भी किया। और तो और, तक़सीम के बाद उस नए बसे मुल्क का हैण्ड पम्प तक उखाड़ फेंका। जहां पूरा मंज़र खौफ़जदा था, वहां तारा सिंह की इस दिलेरी पर पूरा सिनेमा हॉल सीटियों और तालियो से गूंज उठा था।
सिनेमा का जादू ही कुछ इस कदर है। जब कोई गीत आता तो लोगो के पैर थिरखने लगते। विरह के दृश्य में दर्शकों की आंखे अश्क़ों से भर जाती। उन नम आंखों से वो सकीना और तारा सिंह की जुदाई का दर्दनाक मंज़र भी देखते।
बहरहाल, उन सैंकड़ों की तादात में हमारा नन्हा सा नमन भी बैठा था, जिसकी उत्साह की आज मानो कोई सीमा ना थी। हैण्ड पम्प उखड़ा तो दर्द उसकी नाज़ुक कलाइयों में महसूस हुआ। गीत के दौरान मानो उसकी हथेलियों ने ट्रक का चक्का थाम लिया।
आज उत्साह का कारण बस फिल्म ही न थी। आज इस नन्हे से नमन का सातवां जन्मदिन भी था। उस के पिता वादे के अनुसार द
फ़्तर से आधी छुट्टी ले कर नमन और उसकी मां को फिल्म दिखाने ले गए थे। जैसे ही फिल्म छूटी, वो दौड़ता हुआ पिता के स्कूटर पर सवार होगया। वह गदर देखने के बाद सनी देओल जो हो गया था। अब अच्छा थोड़ी लगता है की उस स्थिति में मम्मी उसे उठा कर पिताजी और अपने बीच में बिठाए ?
फ़्तर से आधी छुट्टी ले कर नमन और उसकी मां को फिल्म दिखाने ले गए थे। जैसे ही फिल्म छूटी, वो दौड़ता हुआ पिता के स्कूटर पर सवार होगया। वह गदर देखने के बाद सनी देओल जो हो गया था। अब अच्छा थोड़ी लगता है की उस स्थिति में मम्मी उसे उठा कर पिताजी और अपने बीच में बिठाए ?
पिताजी को अपने वादे का अगला पढ़ाव याद था। वह स्कूटर दौड़ाते हुए पहुंचे भगीरथ पैलेस। उस चका चौंध को देखते ही नमन की तो मानो आंखे फटी की फटी रह गई। गलियों से गुजरते हुए वो पहुंचे एक ऐसी जादुई गली में, जहां खिलोनों की कई दुकानें थी। उन कांच के बने दरवाजों के पीछे तरह तरह के खिलोने नमन को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।
कहीं बोलने वाला खरगोश था, जो अपनी बड़ी बड़ी आंखों से उस पारदर्शी दरवाज़े से नमन की ओर देखता। कहीं अनगिनत रंगो से सजी गेंद, जो फेंकने पर प्रकाशमय हो जाती थी, नमन को आकर्षित करती।
पिताजी का हाथ थामे जब वो एक दुकान में गए तो नमन का उत्साह फिर अपने चरम सीमा पर पहुंचा। तरह तरह के खिलोने करीने से डब्बे में बंद चारो ओर लगे थे। नमन जब भी किसी खिलौने की ओर देखता, तुरंत उसकी नज़र मां की आंखों की तरफ जाती। मां उसे आंखों ही आंखों में समझा देती के कौन सा खिलौना उन के जेब में रखे पैसों के मुताबिक खरीदा जा सकता है और कौन सा नही। हॉट व्हील्स की गाड़ी के लिए नमन अभी छोटा था (ऐसा मां ने कहा) और डाक्टर सेट के लिए अब वो बड़ा होगया था (ऐसा भी मां ने कहा)। और कुछ ही मिनटों की तफ़्तीश के बाद उसे कुछ ऐसा दिखा जिसे देखते ही वो मोहित हो गया। उसे ऐसा महसूस हुआ मानो सब थम गया हो। हौले से अपनी तर्ज़नी से इशारा कर के अपनी मां को बताया की उसे क्या चाहिए। इस बार तो उसने मां की आंखों की तरफ भी तवज्ज़ो ना दी। वो खिलौना एक नवजात शिशु की सूरत का था। उसकी मंद मुस्कान, बड़ी आंखे, और नए खिलते हुए बालों ने नमन को मोहित कर लिया था। नीले रंग के लिबास में वो अपनी पलकें हल्के से झपकता है, मानो कोई जीता जागता शिशु हो।
ऐसा प्रतीत हुआ जैसे शाम से ही नमन उसे ढूंढ रहा हो।
अब स्कूटर पर, मां और पिताजी के बीच में बैठा नमन इस नवजात शिशु के खिलौने को अपने सीने से लगाए बैठा था। स्पीड ब्रेकर, गड्ढों, और कई ऐसी छोटी आपदाओं से उस शिशु को बचाना, नमन अपनी जिम्मेदारी समझने लगा।
तड़के ही उस शिशु खिलौने को गोद मैं उठा लेता और धीरे से उठाता। स्कूल जाता तो आंखे कुछ नम हो जाती। जब छुट्टी होने में कम समय शेष रह जाता तो उसकी खुशी फुले ना समाती। घर पहुंचते ही स्कूल में जो कुछ हुआ उसे विस्तार से नन्हे शिशु को बताया जाता। बिना स्कूल की वर्दी बदले उस के पास सो जाता। और इसी तरह लगभग एक हफ्ता बीत गया। और नमन का रिश्ता उस खिलौने से और गहरा होता गया।
उस रात पिताजी घर देर से आए। पिताजी ज़्यादा बात नही करते थे, पर उस रात उनको चुप्पी मानो चुभ रही थी। खाना खाते हुए उन्होंने बताया के तीन दिन बाद संध्या बुआ और विवेक फूफा जी झांसी से दिल्ली आ रहे है। वह दो दिन उन के घर रुकेंगे और उस के बाद हवाई जहाज से श्रीनगर जाएंगे।
नमन यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। वह जानता था कर बुआ और फूफा जी के साथ उनका नन्हा सा बेटा प्रशांत भी आएगा। अब तो वो साल भर का हो गया होगा। नमन की मुलाकात उनसे बस एक बार झांसी में हुई थी। वह पहली बार नमन के घर आ रहा था।
दूसरी ओर मां और पिताजी कुछ परेशान थे। महीना खत्म होने को था और तनख़्वाह अपने पंख पसारे कहां उड़ चुकी थी, उसका अंदाज़ा लगाना नामुमकिन था।
अब पहली बार भांजा घर आए और खाली हाथ जाए वो पिताजी को गवारा नहीं था।
जल्दी से पलंग के पल्ले खोलें गए और अगला घंटा इसी में व्यतीत हुआ के क्या हल निकाला जाए।मिनी मौसी ने जो साड़ी मां को दी थी वो बुआ को दे दी जाए या पंकज मामा वाला पेंट सूट फूफा को दे दिया जाए। सब सामान को बाहर निकाला गया और अलमारी में रख दिया गया।
परंतु प्रशांत को क्या दिया जाए? ५०१ रूपए शगुन के तौर पर देने का फैंसला किया गया और साथ में कोई खिलौना।
अंदर नमन उस शिशु को सारा व्याख्यान बता रहा था। पिताजी ने मां को अंदर भेजा ताकि वह नमन को समझा सके।
मां ने प्यार से नमन के बालो में हाथ फेरा। नमन को कोई अंदाज़ा ना था के मां के मन में क्या है।
"बेटा आपको पता है ना शनिवार को प्रशांत आने वाला है। आप जानते हो ना प्रशांत आपका कौन है ?" मां बोली।
"प्रशांत तो मेरा भाई है।" नमन ने उत्साहपूर्वक उत्तर दिया।
"तो आप अपने भाई को क्या देने वाले हो? वह पहली बार घर आ रहा है ना ?" मां ने गंभीरता से पूछा।
"मैं उस के लिए कागज़ के फूलों का गुलदस्ता बनाऊंगा। मेरे बस्ते में रंगीन कागज़ों का एक पैकेट पढ़ा है। मैं कल सुबह ही बनाना शुरू करूंगा मां।" नमन ने कहा।
"बेटा प्रशांत अभी छोटा है, वह गुलदस्ते का क्या करेगा? जब वो अगली दफ़ा आएगा तो और बड़ा हो गया होगा, तब आप उसे गुलदस्ता देना।" मां ने अब नमन की आंखों में देखा। "क्या हम प्रशांत को ये नन्हा सा खिलौना दे दें ? पापा अगली बार जब बाज़ार जाएंगे तो आपको नया ला देंगे ?"
बस मां के ये बोलना था की नमन ने उस खिलौने को और कस कर पकड़ लिया और अपने सीने से लगा लिया। उसकी आंखें हौले से नम हुई और फिर अश्कों की नदिया फूट पड़ी।
नमन को ऐसे सुबकते देख पिताजी भी अंदर आ गए। अपने कुर्ते की बाहें ठीक कर कर वह कोने में चुप चाप खड़े हो गए। नमन ने उन्हें देखते ही आंसू पौंछे और खिलौने को अपने पीछे छुपा लिया।
"नमन एक खिलौना ही तो है? तुम क्यों इतना भावुक हो रहे हो? हम तुम्हें नया दिला देंगे बेटा।" मां की आवाज अब कुछ ऊंची हो गई थी।
नमन के लिए मां को उस खिलौने की एहमियत समझाना मुश्किल था। वह उन्हें नहीं समझा सकता था की दूसरा खिलौना उस नन्हे शिशु की जगह नही ले सकता था। वह शिशु अब नमन का घनिष्ठ मित्र था। उसकी रक्षा करना अब नमन का कर्तव्य था। उस की हर जरूरत का ख्याल रखने को नमन अपनी सर्वोत्तम जिम्मेदारी समझता था।
"तुम रहने दो बेटा। हम खाली हाथ प्रशांत को भेज देंगे। कोई बात नही, बुआ और फूफा जी को पता लग जाने दो के हम नमन को कुछ नही दिलाते। ना ही हम प्रशांत के लिए कुछ खरीद सकते है। हमारी निंदा होती है तो हो जाने देना।" ऐसा कहते हुए मां आग बबूला होते हुए कमरे से बाहर चली गई।
बहुत देर तक नमन सिर को झुकाए और उस खिलौने को अपने पीछे छुपाए वहीं खड़ा रहा। उसकी आंखे अभी नम थी। कुछ देर में बिना कुछ कहे पिताजी भी बाहर चले गए।
नमन उस खिलौने को हाथ में थामे अपने बिस्तर पर लेट गया। तकिए पर सिर दबाए वो काफी देर सुबकता रहा, रोता रहा। और कब उसकी आंख लग गई उसे पता ही नही चला।
सपने में उसे कई सारे खिलौने दिखे जो हुबहू उसके खिलौने जैसे थे। वो कतार में खड़े कई खिलौनों की तरफ देखता रहा। पर उन में से कोई भी उसका खिलौना नही था। तभी उसने देखा कि उसका खिलौना अलग से खड़ा है। उस खिलौने की आंखें नम हैं।
नमन डर कर उठ गया। उसका खिलौना उस के साथ ही था।
शनिवार आया तो संध्या बुआ आई। और फूफाजी और प्रशांत को अपने संग लाई। उस दिन से मां ने नमन से बस जरूरत की बात करनी शुरू कर दी थी। नमन को इस बात का एहसास था की मां नाराज़ है, परंतु उसे नन्ही सी जान की कुर्बानी देना मंज़ूर नहीं था। क्या ख़ता थी इस नन्ही सी जान की ? उसे तो खबर भी ना थी कि उसे नमन की ममता भरे हाथों से छीनकर किसी और को सौंपने का षडयंत्र रचा जा रहा है।
नमन बुआ के आने के पश्चात अधिक समय घर के आंगन में लगे झूले में ही बिताता। शनिवार को तो दिन ढलने तक वह बाहर ही रहा। रविवार दोपहर को आसमान की तरफ देखते उसकी आंखे नम होने लगी। उसकी दिल की धड़कन मानो धीमे होने का नाम ही ना लेना चाहती हो। वो दौड़ कर मां के पास गया और उनका हाथ पकड़ कर अंदर के कमरे में ले गया।
"क्या है?" मां ने गुस्से मैं पूछा।
इतने में अपनी चप्पल उतार कर नमन पलंग पर चढ़ गया। उसने ममता भरे हाथों से और भीगी हुई आंखों से उस खिलौने को उठा कर हिफाजत के साथ मां को सौंप दिया।
अब मां की आंखें भी नम थी। परंतु उन्होंने मेज़ पर रखे उस खिलौने के डब्बे को उठाया और उस खिलौने को डब्बे में डालने लगी। नमन ने उन्हें तुरंत रोक लिया। उस खिलौने को दोबारा अपने हाथ में लिया, उस के सिर को चूमा और मां को सौंप कर, बिना पीछे मुड़े वह बाहर की और चला गया। उसका कलेजा जज़्बातों से भरा था या एक भार उस के सीने से उतर गया था, यह कह पाना मुश्किल है।
गर्मियों की छुट्टियां आई तो दो तीन दिन झांसी में बिताने की बात चली। बात किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाती, उससे पहले ही पिता जी ने जाने की टिकट भी निकल वाली। सुना था प्रशांत अब पलंग और मेज़ को पकड़ कर चलने लगा था। अपनी आंखों से ये नज़ारा मां और पिताजी देखना चाहते थे।
झांसी पहुंचते हुए शाम हो चुकी थी। ट्रेन लेट होने के कारण लगभग चाचा चौधरी की दो कॉमिक्स नमन निपटा चुका था। स्टेशन पर पहुंचते ही उसकी आंखें फूफा जी अथवा बुआ को खोजने लगी। फूफा जी अकेले ही अपनी नई गाड़ी में उन्हे लेने आए थे।
बुआ के घर पहुंचते ही वे प्रशांत के साथ खेलने लगा। उसे अपनी उंगली थमा कर धीरे धीरे उसे सैर कराता और गिरने से उसे बचाता।
चलते चलते वह अंदर के कमरे में पहुंच गए। वे कमरा प्रशांत के अनगिनत खिलौने से भरा था। सैंकड़ों खिलौने एक पहाड़ी के आकार में वहां पढ़े थे। वहां पहुंचते ही नमन का चेहरा पसीने से भीग गया। उसकी आंखे लाल होने लगी। एक घबराहट ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। उसकी आंखें कुछ ढूंढ रही थी। वो उसे मिल भी गया।
उस नन्हे शिशु का सिर धड़ से अलग था। शीश तो था पर धड़ ढूंढ पाना मुश्किल था। थोड़ी तफ़्तीश के बाद एक हाथ मिला। उस नीले लिबास को देखते ही वह पहचान गया। वह हाथ उसने अपनी जेब में डाल लिया। कुछ लम्हे वो उस शिशु के सिर को निहारता रहा।
उन चंद घड़ियों में नमन की उम्र मानो कई वर्ष बढ़ गई थी।
"एक खिलौना ही तो है" वह खुद से बोला और प्रशांत को उस कमरे से बाहर ले गया।
हिमांशु