जैसे ही बसंत के अलविदा कहने का समय आता है, शहर में चहल-पहल बढ़ जाती है। पौ फटते ही खिलखिलाती धूप पूरे शहर को एक गर्म चादर में समेट लेती है और हौले से कान में कुछ फुसफुसाती है—जैसे मां अपने बच्चे के आग्रह पर उसे कुछ और देर खाट पर सुस्ताने देती हो।
लेकिन आज की सुबह में एक गर्जना थी। शहर की चहल-पहल अभी धीमी थी, इसलिए उस गर्जना की गूंज दूर तक जा रही थी। पर मेरे सिर पर तो मानो स्वयं ऐरावत नृत्य कर रहे हों।
वह गर्जना ठीक मेरे दरवाज़े के बाहर से आ रही थी।
सुक्खी की आवाज़ का तूफान पूरे शहर को रोक सकता था, लेकिन मेरा ध्यान भंग करने के लिए वह काफी नहीं था। जिस तरह मैंने अपनी पगड़ी को बांधा था, मैं अभी भी उससे संतुष्ट नहीं था।
मैं चाहता था कि मेरी पगड़ी आगे से उठी हो—नीचे से देखने पर वह ऐसी लगे जैसे कोई सड़क पहाड़ से लिपटकर उसके ऊपर चढ़ाई कर रही हो। और बाईं ओर से कुछ कपड़ा लटकता रहे। बसंत की भीनी-सी हवा चले और मेरी पगड़ी का वह कपड़ा लहराए तो बात ही क्या। लेकिन दिल्ली अभी कोसों दूर था।
"हरजीते, ओह हरजीते... सुनाई नी देन्दा तैनु?"
एक झटके से दरवाज़ा खुला और सुक्खी कमरे में दाखिल हो चुका था। उसकी आंखों की व्यथा ऐसी थी, जैसे वह अपने मुंह से नहीं, अपनी आंखों से चीख रहा हो। मेरी पगड़ी का एक सिरा मेरे दांतों के बीच भींचा हुआ था और दूसरे सिरे को ढूंढना खुद में एक पहेली था।
सुक्खी उस दृश्य को देखकर अपनी हंसी नहीं रोक पाया।
उसकी हंसी व्यंग्यात्मक थी, लेकिन मैं लाचार था—मुझे उसकी ज़रूरत थी।
"चल बैं जा इत्थे," उसकी हंसी पर लगाम लगाते हुए उसने मुझे मंजी पर बैठने को कहा।
सुक्खी मेरा पक्का दोस्त था। मेरी हर पसंद-नापसंद वह मुझसे बेहतर जानता था। हमारी दोस्ती तब से थी, जब हमें इस बात का इल्म भी न था कि बिना पाजामा पहने घर से बाहर नहीं जाते। हर अच्छे-बुरे पल में हम एक-दूसरे के साथ रहे थे।
मैं चुपचाप मंजी के एक कोने में आटे की बोरी बना बैठा था और सुक्खी बड़बड़ाते हुए मेरी पगड़ी बांध रहा था। मेरी नज़र उसकी आंखों पर टिकी थी—कपड़े के हर घुमाव के साथ उसकी आंखें नृत्य कर रही थीं। हर घुमाव के साथ उसके हाथ भी मेरी पगड़ी को टिकाते हुए आगे बढ़ते।
जिस जादू की अपेक्षा मैं उस सुबह अपने हाथों से कर रहा था, वह जादू सुक्खी के हाथों में था। उसकी मुस्कान से मैं भांप गया कि वह अपने काम से संतुष्ट है।
मैंने खुद को शीशे में देखा।
मैं उस इंसान को पहचानता था जो शीशे में दिख रहा था। कई बार मैंने उसका चित्र अपने ज़हन में बनाया था। कई बार उस चित्र में कई रंग भरे, लेकिन पगड़ी ठीक से कभी न बना पाया।
आज वह पगड़ी वैसी थी, जैसी अपने ज़हन में उसकी कल्पना की थी। वह चित्र नहीं, वह कल्पना मेरे सामने लगे शीशे से मुझे निहार रही थी।
"चल हुण चलिए जलसे नू?"
सुक्खी मेले में जाने के लिए उतावला था, लेकिन मुझसे अधिक नहीं।
बाउजी की दी हुई घड़ी मैंने जल्दी से अपने बाएं हाथ में पहनी। उन्होंने मुझे कुश्ती में बटाला से आए पहलवान को चित्त करने पर दी थी। वह घड़ी मैं ख़ास मौकों पर ही पहनता था।
गली से निकलते ही हम बाज़ार की तरफ़ चल पड़े। माहौल में एक चुभती हुई चुप्पी थी। दुकानें, जो कुछ दिन पहले तक चहल-पहल से भरी रहती थीं, आज शांत थीं। और सबसे अधिक शांत थी किताबों की दुकान।
किताबों की वह दुकान अपने भीतर एक मौन समेटे बैठी रहती थी, लेकिन मेरे दाखिल होते ही मुझसे बात करने लगती। अलग-अलग किताबें अपनी-अपनी व्यथा सुनाती थीं—वे किताबें, जो गुरुमुखी में उर्दू से तर्जुमा होते ही मुझे देख रही थीं। उन्हें पता था कि मेरे कुर्ते की जेब में रखा हर पैसा धीरे-धीरे कैसे जमा हुआ था।
और मैं जाकर अत्तर की शीशी ले आया... चन्नों के लिए।
अत्तर... चन्नों... दुर फिट्टे मुंह...
"सुक्खी वीर, मैनू घर नू जाना पैणा है यार," मैं डरते-डरते बोला।
"ओए हुण की होया पागला?" उसने गुस्से में अपनी भौंहें चढ़ा लीं और अपनी आंखों से चिल्लाने लगा। फिर से।
"तोहफा भुल गया यार। तू दरबार साहब वल चल, मैं भजदा होया गया ते हुणे आया।"
मैं घर की तरफ भागा।
"इक ता ए चन्नो जीण नहीं देन्दी यार..."
जिस रफ़्तार से भागा था, सुक्खी की आवाज़ अब धुंधली पड़ गई थी।
घर में दाखिल होते ही मेरी शक्ल मुझे आईने में दिखी।
"निरा ही सोहणा मुंडा है तू यार हरजीते," मैंने मन में ही अपनी तारीफ़ की। मैं अक्सर ऐसा करता हूँ।
अपने पलंग के सिरहाने रखी पीले रंग की पोटली उठाई और अपने कुर्ते की जेब में रख ली।
जाते-जाते एक बार फिर खुद को आईने में निहारा।
"निरा ही सोहणा मुंडा..."
दौड़ने का वायदा करने के बाद भी मै चलते हुए जलसे की तरफ जाने लगा। जलसा अधिक दूरी पे नहीं था।
"ओए, वेयर यू थिंक यू आर गोइंग डर्टी किड" ताज़ा ताज़ा अधेड़ उम्र में प्रवेश किए एक गोरे सिपाही ने मुझसे पूछा।
"अह अह सर जी... बेबे वेरी वेरी बीमार सर जी... दवाइयां सर जी..." मैने एक कोरा कागज अपनी जेब से निकालते हुए कहा।
"रन अवे यू डॉग" उसने आंखों से चिल्लाते हुए कहां... जैसे सुक्खी बोलता है।
मैने धीरे धीरे चलना शुरू किया, लेकिन रफ्तार पकड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण चीज़ की आवश्यकता थी।
"तैनू कीड़े पैन गॆ ओय गोरेया" मैं ज़ोर से चिल्लाया और एक छह फीट ऊंची दीवार फांद कर भाग गया।
सुक्खी अब दरबार साहब के बाहर खड़ा था। मुझे देख कर वो पल भर के लिए मुस्कुराया। मै भी मुस्कुरा दिया।
बाबा जी को दरबार साहब के बाहर से ही मैने माथा टेक दिया। बाबा जी और मेरे बीच ऐसा चलता है। उन्हें मैने रात को ही बता दिया था कि मै चन्नों के लिए गुलाबों से बना अत्तर ले कर आया हूं। मैने उन्हें ये भी बताया था कि दो दिन पहले चन्नो ने वादा किया है कि वो अपने दुप्पटे का रंग मेरी पगड़ी के रंग का रंगवाएगी। उन्हें यह भी पता था कि जलसे के लिए देरी हो गई है। उन्हें सब पता है।
मेरे बाबा जी बाबा नानक है। वैसे तो मैं सारे बाबा जी से बात करता रहता हूँ। पर सबसे प्रिय मुझे बाबा नानक है। उन्हें मेरे बारे में सब पता है। वो वाहेगुरु जी से बात करते रहते है। शायद वो मेरे बारे में भी वाहेगुरु जी से बात करते है। मुझे कई बार ऐसा महसूस हुआ है।
हम दोनों बाग की तरफ चले। दूर से ही ढोल बजने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ढोल शांत होते ही माइक्रोफोन की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी।
अंदर घुसते ही शोर सुनाई देने लगा। भीड़ दिखाई देने लगी।
"यह लड़ाई हमारी है, अकेले सत्यपाल जी की नहीं। सिर्फ किचलू जी ने ठेका नहीं उठाया रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का। सिर्फ उन्होंने जेल जाने का ज़िम्मा नहीं उठाया। हम सब को एक जुट होना होगा। हमें मिल कर लड़ना होगा।" मोटी ऐनक लगाए एक आदमी बाग के बीच में कुर्सी पर चढ़ कर भाषण दे रहे थे। तमाम लोग उन्हें सुन रहे थे।
माहौल में एक खुशी थी। उस खुशी को मै जज़्ब कर रहा था। पर मेरी आंखे चन्नो को ढूंढ रही थी। मेरी आंखे ढूंढ रही थी केसरी रंग के दुप्पटे को। मेरी आंखे ढूंढ रही थी जिसे मैं अपने कुर्ते की जेब में रखी अत्तर की शीशी दूं। अपने हाथ से जिसकी कलाई पर इत्र लगाऊं। फिर चुप चाप उसे सूंघते हुए देखूंगा। उसे समय यात्रा करते हुए देखूंगा, गुलाबों की खिलती हुई क्यारियों के बीच।
मेरी आंखे मेरी चन्नो को ढूंढ रही थी।
किसी ने माइक्रोफोन की आवाज़ बढ़ा दी। एक कानो को चुभने वाली आवाज़ ने पूरी भीड़ स्पीकर की तरफ कर ली। सुक्खी आस पास कहीं नज़र नहीं आया। जब ढूंढा तो बर्फ का गोला अपने होंठो से लगाए प्रीतो से बाते करते हुए मेरी तरफ़ देख रहा था।
"चन्नो कित्थे है?" मैने इशारे करते हुए चिल्लाया। उसने इशारे में ही पीछे देखने को बोला।
पीछे मुड़ते ही मुझे चन्नो से पहले माहौल में एक गंभीरता नज़र आई। कुछ वर्दी धारी अपने कंधों पर बंदूके टांगे बाग के अंदर घुस आए। उन्हें देखते ही भीड़ को एक चुप्पी ने जकड़ लिया। सारी आवाजें एक फुसफुसाहट में तब्दील होगई।
"आप सब घबराए नहीं। जब तक हम सब साथ है, ये सरकार हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकती। एकता में जो बल है, उस बल के सामने ये सरकार कुछ भी नहीं है।"
वो शख्स जो भाषण दे रहा था, उसकी आवाज़ अब किसी माइक की मोहताज नहीं थी।
वर्दीधारी दरवाज़ा घेरकर पूरी भीड़ का मुआयना कर रहे थे। पर वो गोरे नहीं थे—हमारे जैसे थे। बस देखने में। मानसिकता में वो गोरों से भी अधिक गोरे थे... इतने गोरे कि उनकी मानसिकता अब काली स्याह हो चुकी थी। हाँ, उनकी आँखों में वो दरिंदगी नहीं थी, मगर उन्होंने अपनी डोर अपनी मर्ज़ी से गोरों के हाथों में सौंप दी थी।
कुछ गोरे अंत में अंदर दाखिल हुए। उसके बाद दरवाज़े बंद कर दिए गए।
"आप घबराएँ नहीं, एक साथ रहिए। हमें इन्हें मुँहतोड़ जवाब—"
एक गोली चलने की आवाज़ ने लीडर साहब का भाषण फीका कर दिया। गोली उनकी गर्दन पर लगी थी। उनकी आँखें ऐनक के उस पार से खुले आसमान को देख रही थीं। लहू की एक पतली धार अब बाग़ की ज़मीन को सुर्ख करने लगी थी।
गोली की आवाज़ मेरे कानों में पड़ते ही मैं सुन्न पड़ गया। स्पीकर की तीव्र आवाज़ मेरे देह में पीड़ा दे रही थी। मैंने दरवाज़े की ओर देखा—कई वर्दीधारी भीड़ की ओर बंदूक ताने खड़े थे।
एक गोरा, हाथ पीछे बाँधे, उन वर्दीधारी मूर्खों के बीच खड़ा था। उसने अपनी डरावनी आवाज़ में कुछ चिल्लाया।
भगदड़ मच चुकी थी। गोलियाँ बरस रही थीं। बच्चे पैरों तले रौंदे जा रहे थे। बुज़ुर्गों के हाथ पकड़ने वाला कोई न था। पगड़ियाँ उछल चुकी थीं। आँखों में दहशत फैल चुकी थी। मृत्यु का तांडव चारों ओर था। लाल... सब लाल था... सुर्ख... मैला...
मैं अभी भी सुन्न था। लीडर साहब की लाश रौंदी जा चुकी थी।
"हरजीते... आएथे..." सुक्खी की आवाज़ से मैं होश में आया। मैं मैदान के दूसरी तरफ़ भागा। वहाँ मकान थे। दीवार इतनी ऊँची नहीं थी कि मैं इसे लांघकर मृत्यु को पीछे न छोड़ पाता।
एक बच्चों का झुंड लाशों के ढेर के पीछे छुप रहा था। उनमें से दो बच्चे चोटिल थे। उनकी रोने की ध्वनि भीड़ के रोने की ध्वनि में मिल रही थी।
मैंने सामने देखा, तो मेरी आँखों के आगे एक रोशनी चमकी। धूप-सी तेज़ रोशनी। मेरी आँखें चुंधिया गईं। मैं रुका और समझने की कोशिश की, तो एक केसरी रंग का दुपट्टा मेरे चेहरे पर प्यार भरा स्पर्श करता हुआ, मुझे छुपाए बैठा था।
दुपट्टा हटते ही फिर वो भयावह मंज़र मेरे सामने था।
"चन्नो..."
मैंने उसे देखा। वो मेरे सामने से भागते हुए बाईं ओर चली गई, मुझे बिना देखे।
मैं उसके पीछे दौड़ पड़ा। वो मुझसे दूर थी। बहुत दूर।
मेरी आँखों के सामने ही वो कुछ औरतों के झुंड में घुस गई। मैं ज़्यादा दूर नहीं था। मैंने देखा उसे...
मैंने देखा उसे कुएँ की दीवार पर चढ़ते हुए।
मेरे कदम वहीं रुक गए। उसने मेरी तरफ़ देखा। मेरी आँखों में देखा। मेरी देह के पार देखा। और फिर आँखें बंद कर लीं। उन आँखों में मैं समा चुका था। हमेशा के लिए।
अगले ही क्षण, वो मेरी आँखों से ओझल हो गई।
हमेशा के लिए।
और मैं अपनी आँखें नहीं खोल पाया। मेरे पैर मेरा भार उठाने में अब असमर्थ थे।
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जब मेरी आँखें खुलीं, तो मुझे अंबार दिखे...
मृत शरीरों के अंबार। मृत इंसानियत के अंबार। मृत सपनों के अंबार। मृत आशाओं के अंबार।
किसी तरह मैं उठा। मैदान अब लाल से स्याह हो चुका था। और भी अधिक डरावना। अब चुप्पी काटने को दौड़ रही थी।
आवारा कुत्ते अब अपना खाना ढूँढने लगे थे। चीलों ने आसमान में एक घेरा बना लिया था। लालटेन की रोशनी में सब अपने अपनों को ढूँढ रहे थे।
मैं गुलाबों के बाग़ में था। मैं गुलाबों की खिलती महक सूँघ सकता था।
एक सरदार जी लालटेन लिए मेरे सामने आकर खड़े हो गए। उन्होंने लालटेन मेरे चेहरे के समक्ष की। हल्का-सा मुस्कुराए।
"वाहेगुरु... वाहेगुरु... वाहेगुरु..." दोहराते हुए वो चले गए।
लालटेन की रोशनी में मुझे इत्र की शीशी नज़र आई, जो टूट चुकी थी। तीन बच्चों और एक नौजवान के बीच पड़ी थी वो शीशी। चार मृत शरीरों के बीच, पूरा आलम महका रही थी।
मैंने देखा तो इत्र उस नौजवान के कुर्ते पर फैल चुकी थी।
मेरे आँसुओं से उस शख़्स का कुर्ता और भीग रहा था। मैं बच्चों-सा रो रहा था।
बच्चा, जिसका सब लुट गया हो।
लालटेन की हल्की रोशनी में मैंने उस चेहरे की तरफ़ गौर किया...
वही चेहरा, जो आज सुबह आईने से मेरी तरफ़ देख रहा था। आँखें खुली थीं। बाल बिखरे थे। सीने से एक केसरी रंग का दुपट्टा लिपटा था।
"जो भी है हरजीते, है तू निरा सोहणा..."
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कई साल बीत गए, मै आज भी वहीं रहता हूँ... कुएं के पास। कभी आप जलियांवाला बाग आए तो मुझे ज़रूर ढूंढना। मै वहीं हूँ, जहां से गुलाबों की महक आती है...
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हिमांशु
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